किसी पेड़ की छाँव में
किसी की राह तकते
कोई लङकी बैठती है
बिल्कुल वैसे ही मैं हूँ अभी
खिङकी तकती कभी
दरवाजे की आहट सुनती कभी
लगता किसी का इन्तजार हो
पर अभी तो कोई आने वाला नहीं
कोयल की आवाज आती है
सुबह बैचैन रहती है
शाम को बाँबरी हो जाती है
यूँ चीखती है मानो कह रही हो
कोई दास्ताँ अनकही
मैं भी विचलित हो उठती
कहीं न कहीं स्वयं को उसमें खोजती
बार बार सोचती
कि मेरा हाल भी कुछ ऐसा है
बस उसकी तरह नहीं चीखती
बिस्तर की सिलवटें देखती कभी
छत को टकटकी लगाकर देखती कभी
दोनों ही खामोश रहती
सन्नाटों की धुन करीब से गुजरती
मानो हँसती हो मुझ पर हर घङी
तकिया का सिरहाना आँचल बना
रख सिर गोद में जिसके निरन्तर अश्रु बहा
मेरे सारे दर्द संजोकर रखे जिसने
सब जानकर, सुनकर प्रश्न नहीं किये उसने
बीत जाये सदियां बस यहीं कहीं
लेटी रहूँ अनन्त तक आंचल में यूंही
-आस्था गंगवार ©
Good one Astha
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Thank you 😊
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Hey astha I am giving here links to some of my hindi poems from many. Do read once and let me know how are they .
पहचान
https://shabdragini.wordpress.com/2017/05/28/पहचान/?preview=true
उड़ान
https://shabdragini.wordpress.com/2017/06/09/उड़ान/?preview=true
परित्यक्त
https://shabdragini.wordpress.com/2017/07/13/मैं-परित्यक्त-हूँabandoned/?preview=true
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Yeah sure I will read 😊
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Badhiya.
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Nice
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