चाँद का एक टुकड़ा
या कहूँ मैं पूरा चाँद
या कहूँ सिर्फ़ उसकी छोटी झलक
अक्सर मेरे आँगन से दिखता है
वो चाँद नहीं दूर बैठा महबूब लगता है
फिर खिङकी से देखती हूँ
सितारों का मेला लगा होता है
आपस में फुसफुसाते नजर आते हैं
लगता है मेरे किसी खास किस्से पर
वाद-विवाद प्रतियोगिता हो रही हो
शायद कहते होंगे
मैं चाँद को देख तो सकती हूँ
मगर उस तक पहुंच नहीं सकती
या कहते होंगे
कितनी नादान नासमझ है ये
उस चाँद में महबूब ढूंढ रही है
जो खुद अपनी रोशनी किसी से उधार लेता है।
–आस्था गंगवार ©
👍😁
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😀
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बहुत ही सुंदर । 👌
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बहुत शुक्रिया आपका
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ब्यूटीफुल
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Thank you
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