दर्द का गहरा समुन्दर लिए फिरती हूँ
आवारा दिल को समझाकर खामोश रखती हूँ
चेहरे पर झूठी हंसी का नकाब ओढे रहती हूँ
मैं जो नहीं वो दिखाने की कोशिश करती हूँ
आँखें भी आँसुओ से भरी अब दुखती है
रात के अँधेरे में अक्सर इसलिए रो लेती हूँ
जहाँ सपनो की दुनिया को चांद तारो से सजाया था
टूट गया सपना तो अाज वही बिखरी खङी हूँ
ढूढती हूँ वो पल जिस पल में मुझसे खुशी जुङी थी
जिन्दगी के सब रंगो को फिर से खोजती हूँ
दर्द का गहरा समुन्दर लिए फिरती हूँ
क्या करू खुश रहू अक्सर अकेले बैठ यही सोचती हूँ
गम जो सताए तो रोऊं नहीं ऐसी वजह ढूढती हूँ
बिन वजह अक्सर खुद की परछाई से बाते कर लेती हूँ
सुबह की रोशनी से कभी कभी जीने के हुनर सीखती हूँ
नाराज न हो जाये जिन्दगी इस बात से डरती हूँ
खामोश ओंठ है पर मन में कितनी बातें करती हूँ
दर्द का गहरा समुन्दर लिए फिरती हूँ।
-आस्था गंगवार
Bahut khub.
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Sukriya
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